Lekhika Ranchi

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शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की रचनाएंःपरिणिता -9


परिणिता भाग-


9

उस रात को काफी समय तक शेखर पागलों की भाँति, बिना किसी उद्देश्य के इधर-उधर गलियों में फिरता रहा; फिर घर में आकर बैठा हुआ सोच-विचार में पड़ा रहा। उसे बड़ा आश्चर्य हो रहा था कि यह सीधी-सादी ललिता इतनी बातें कहाँ से सीख आई? यह निर्लज्जता की बातें उसे कहाँ से कहनी आ गई। इतना साहस, गजब का साहसा! आखिर यह सब कहाँ से? ललिता के आज के व्यवहार पर उसे क्रोध तथा आश्चर्य दोनों हो रहे थे, परंतु वास्तव में यह शेखर की भूल थी। यदि वह तनिक भी बुद्धिमानी से सोचता, तो शायद उसे अपनी ही कमजोरी और कमी पर अपने ही ऊपर क्रोध आता। ललिता का कहना अक्षरशः सत्य था। वह बेचारी और कह ही क्या सकती थी?
द क्या ललिता पूर्ण रूप से यह विश्वास कर लेगी कि उसका पाणिग्रहण हो चुका है? और अक्षय संबंध स्थापित हो का है? इतनी गहराई तक शेखर ने कभी विचार नहीं किया था। उस समय तो शेखर ने आलिंगन करते हुए कहा था कि ललिता, अब जो होना था, हो चुका, इस संबंध को अब कोई नहीं तोड़ सकता न तुम अलग हो सकती हो और न मैं छुट सकता हूँ । इस प्रकार तर्क-कुतर्क करके सोचने की क्षमता उस समय न थी, और न उस समय सोच सकने का अवसर ही था।

उस समय सर पर चांद मुस्करा रहा था। चांदनी की रूपहली आभी छिटक रही थीं। ऐसे समय उसने अपनी प्रियतमा ललिता के गले में माला डाल दी थीष उसे अपने वक्षस्थल से लगा प्रेम संसार में वे दोंनो एक-दूसरे को अपना सर्वस्व सौंप चुके थे। उस समय उन्हें सांसारिक अच्छाईयों और बुराइयों का अनुभव न था। पैसे के लोभी बाप का रूद्र भी उसकी आँखो से ओल था। उसे याद था कि माँ ललिता को प्यार करती हैं, इसलिए उन्हें इस कार्य के लिए राजी कर सकना कठिन न होगा। इसी तरह वह भैया के द्वारा पिताजी को भी कह-सुनकर मना लेगा। किसी-न-किसी तरह इस काम के लिए सब तैयार ही हो जाएंगे। इस बात को शेखर सपने में भी न सोचता था कि गुरुचरण बाबू अपना यह सुगम रास्ता, धर्म-परिवर्तन करके बंद कर डालेंगे विधाता ही इस प्रकार विमुख हो जाएंगे – ऐसा भी खयाल उसे न था। ललिता से संबंध उसका सचमुच हो चुका था।

यथार्थ में शेखर के सामने यह एक विशाल एवं कठिन समस्या थी। उसको पथा था कि एसे समय पिताजी को राजी करने की कौन कहे, माँ भी अब शायद इस कार्य के लिए न राजी होंगी। उसे अब कोई मार्ग न सूझ पड़ता था।

‘ओह! फिर क्या किया जाए?’ कहकर शेखर गहरी सांस ली। ललिता को वह भली-भांति जानता था। उसी ने पढ़ाया-लिखाया और सभी शिष्टाचार की बातें सिखाई थीं। ललिता ने एक बार अपना धर्म समझकर फिर उसकी त्याग न किया। वह जानती है कि वह शेखर की एकमात्र धर्मपत्नी है, इसलिए आज संध्या समय अंधेर में, निःसंकोच वह शेखर के निकट मुंब-से-मुंह मिलाए खड़ी थी।

ललिता की शादी की बातचीत गिरीन्द्र के साथ हुई थीं, परंतु इस रिश्ते के लिए उसको कोई भी राजी न कर पाएगा। समय ऐसा आ गया है कि उसे मुंह खोलकर स्पष् कहना ही पड़ेगा। इस प्रकार सारा रहस्य खुल जाएगा- यह सोचकर शेखर की आँखों में आग प्रज्वलित हो गई, उसकी चेहरा तमतमा उठा। फिर सोचने लगा कि माला पहनकर ही वह चुप नहीं रहा, बल्कि ललिता को अपने वक्षस्थल से लगाकर उसके उसके अधरों की सुधा-रस का भी पान किया। ललिता ने किसी प्रकार की रूकावट नहीं डाली। इस कार्य में वह अपने को दोषी न समझती थी, इसीलिए उसे कोई हिचकिचाहट भी न थी। उसने शेखर को अपना धर्म-पति समझ लिया था। शेखर अपनी इस करनी तथा व्यवहार को कैसे किसी को बताएगा? किसी के सामने वह मुंह भी न दिखा सकेगा।

वास्तव में बात यह भी कि माँ-बाप की राय बगैर ललिता का विवाह भी नहीं हो सकता था, इसमें जरा भी शक नहीं था। परंतु जब गिरीन्द्र के साथ ललिता की शादी न हे का कारण सामने आएगा, तब क्या होगा? फिर वह घर के बाहर अपना मुंह कैसे दिखा-सकेगा?

क्रमशः

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